मेरे पिता, भूषण लाल बजाज, 1939 में हरिपुर हज़ारा में एक पंजाबी अरोड़ा परिवार में पैदा हुए.
हरिपुर एक छोटा शहर था जो NWFP (North-West Frontier Province या उत्तर-पश्चिम सीमान्त प्रांत) के हज़ारा क्षेत्र का हिस्सा था.
NWFP को अब ‘ख़ैबर पख़्तूनख़्वा’ कहते हैं और ये पाकिस्तान के मुख्य प्रान्तों में से एक है.
अगस्त 1947 में भारत के विभाजन के समय – जब मेरे पिता की आयु लगभग आठ वर्ष की थी – उनका परिवार लाखों अन्य परिवारों की तरह अपना घर-बार छोड़के उस ‘सीमा’ को लांघने पर मजबूर हुआ जो 1947 से पहले लोगों के ख्वाब-ओ-ख्याल में भी नहीं थी और जिसका औचित्य आज भी भारतीय उपमहाद्वीप के अधिकतर लोगों की समझ से बाहर ही मालूम पड़ता है.
मेरे पिता का परिवार विभाजन के समय हरिपुर हज़ारा से उजड़ने के बाद ‘सीमा’ के इस पार कई जगहों में रहने के बाद दिल्ली में बसा.
मेरे पिता ने 40 साल P.T./खेल के शिक्षक की नौकरी की और सन 2001 में सेवानिवृत हुए.
पेश है मेरे पिता की हरिपुर हज़ारा में बिताए बचपन की और विभाजन के हंगामे में अपने घर से उजड़ने की कुछ यादें उन्हीं की ज़बानी.
ये पोस्ट मेरे पिता के संस्मरण की पहली किस्त है.
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मेरी पैदाइश का दिन टेवे के मुताबिक़ 30 जुलाई 1939 है और जन्म-स्थान है हरिपुर हज़ारा जो एक पहाड़ी इलाक़ा था. यहाँ ‘चौकी मोहल्ले’ में हमारा घर था.
मैं अपने छः भाई-बहनों में दूसरे नंबर पर था, हालांकि मेरे माँ-बाप के चार और बच्चे नवजात गुज़र गए थे, जिनमें से दो 1947 तक चल बसे थे. हम छः भाई-बहनों में से पांच हरिपुर हज़ारा में ही पैदा हुए.
चौकी मोहल्ला पुलिस चौकी के पास था. शायद इसी लिए इसे ‘चौकी मोहल्ला’ कहते थे.
हमारा पक्का, तीन-मंज़िला मकान था जिसमें मेरे दादा, करमचंद बजाज (जिनकी मृत्यु मेरे जन्म से पहले हो चुकी थी), और ताऊ, नानकचंद बजाज, के परिवार रहते थे.
मेरे बाउजी (पिता), जगदीश राम बजाज, सात भाईओं और एक बहन में सबसे बड़े थे. उनकी बहन और तीन भाइयों की शादियाँ भी विभाजन होने तक हो चुकी थीं.
चौकी मोहल्ले से बाहर एक नहर बहती थी जिसे ‘कट्ठा’ कहते थे. गलिओं में पक्की नालियाँ होती थीं जिनमें साफ़ पानी बहता था जिसे लोग पीने और नहाने-धोने के लिए इस्तेमाल करते थे.
कुँए भी थे, पर हमारे मोहल्ले से ख़ासी दूरी पर.
नहर के किनारे किनारे चलो तो आगे बाज़ार आ जाता था. एक ही बड़ा बाज़ार था जो हरिपुर रेलवे स्टेशन तक जाता था.
इस बाज़ार में हमारी कपड़े की दुकान थी जो मेरे बाउजी (पिता) और उनके भाइयों की सांझी थी. दुकान का नाम था ‘लाला करमचंद एंड सन्ज़’.
नहर की सीध में ही बाज़ार पार ख़ालसा स्कूल था जहां मैं पढ़ता था. ये एक प्राइमरी स्कूल था यानि पांचवी जमात तक का.
मुझे इस स्कूल के बारे में इतना याद है कि वहां हमें उर्दू पढ़ाई जाती थी. मुझे सिवाए अपनी एक बुआ के लड़के के, जो मेरे साथ पढ़ता था, कोई सहपाठी याद नहीं है.
और एक मुसलमान ‘उस्ताद जी’ याद हैं जो हमें उर्दू पढ़ाते थे. वे दरम्याने क़द के, पतले, गोरे, दाढ़ी वाले आदमी थे. ख़ासे dedicated उस्ताद लगते थे; बच्चों से स्नेहपूर्वक व्यवहार करते थे, पर सख्ती भी करते थे और बच्चों को ‘मुर्गा बनने’ की सज़ा देते थे.
हम तख्ती पर क़लम-दवात से लिखते थे और नहर में अपनी तख्तियां धोते थे.
स्कूल 10 से तीन बजे तक होता था. हम आराम से खा पी कर स्कूल जाते थे.
मेरी उम्र के लड़के कमीज़ और कच्छा पहनते थे और इसी लिबास में स्कूल जाते थे. बड़े कमीज़ के साथ सलवार पहनते थे.
स्कूल खेलते कूदते जाते थे. आते जाते जी किया तो नहर में कूद कर डुबकियां लगाते थे.
पुलिस चौकी के सामने सड़क पार ‘सनातन धर्म स्कूल’ था जो दसवीं जमात तक था. खालसा स्कूल पास करने वाले बच्चों का दाख़िला सनातन धर्म स्कूल में होता था.
मुझे याद है मैं इस स्कूल में अपने एक चाचा, गोवर्धन लाल बजाज, के साथ RSS (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ) के एक समारोह में गया था, जिसमें RSS के एक बड़े नेता आए थे.
मेरे ये चाचा, जो मुझसे 8-9 साल बड़े थे, RSS से जुड़े हुए थे.
चौकी मोहल्ले से एक तरफ कुछ दूरी पर हमारे खेत थे जो हमारे परिवार के सांझे थे.
खेत के सामने हमारा बाग़ था जिसमें फलों के पेड़ थे. एक फल जो मुझे याद है उसे ‘लूचा’ कहते हैं; ये आलू बुख़ारे जैसा एक फल है. लुकाट और माल्टा भी उगता था.
मुझे याद है कि हमारे बाग़ के पास एक सूखी नहर थी जिसमें एक छोटा हवाई जहाज़ गिर गया था, जो शायद सिविलियन जहाज़ था. जब मैं ये घटना देखने वहां गया तो जहाज़ उठा कर ले जाया जा चुका था.
हमारे घर के पास एक खेल का मैदान था जिसे ‘खोला’ कहते थे जिसमें रामलीला भी खेली जाती थी और लोहड़ी भी जलाई जाती थी. एक गोरा सिख लड़का सीता का रोल अदा करता था.
कट्ठे (नहर) पर एक ज़नाना घाट था जहां औरतें भजन गाती थीं. एक पंजाबी भजन जो गाया जाता था उसकी पंक्ति थी: ‘हरिओम दी आवाज़ पई आवे श्याम तेरे मंदरां विचों.’
कट्ठे किनारे कुल्फ़ी बनाने वाले थे, जिनमें एक ‘अमर कुल्फ़ी वाला’ मुझे याद है. उसके सामने एक हलवाई की दुकान -- ‘मनोहर लाल गोवर्धन लाल हलवाई’ -- थी जिसके मालिक हमारे रिश्तेदार भी थे.
चौकी मोहल्ले में रहने वाले अन्य लोग जो मुझे याद हैं उनमें एक आनंद परिवार था और एक सूरी परिवार. ये दोनों परिवार विभाजन के बाद ग्वालियर आकर बस गए थे. ग्वालियर में मेरे कुछ चाचाओं के परिवार भी आकर बसे.
हमारे खेतों में गेहूं और मक्का उगता था.
हमारे मकान के भूतल में तीन गोदाम थे जिसमें हम अनाज रखते थे और दो अन्य कमरे थे; मेरे ताऊ के बेटे, जयचंद बजाज, का परिवार भूतल पर ही रहता था.
हमारा एक गोदाम बाज़ार में भी था.
मकान में दो तरफ से खुली एक बैठक थी जहां औरतें गर्मियों में ठंडक पाने के लिए बैठती थीं. मकान में बिजली भी थी; रेडियो और पंखे थे.
ऊपर जाने के लिए खुल्ली सीढ़ियां थीं.
पहले तल पर तीन कमरे और एक रसोई थी. दूसरे तल पर एक ही कमरा था.
मकान में शीशे का काफ़ी काम था और टाइलें भी लगी हुई थीं.
मोहल्ले में मिटटी के तेल से जलने वाली स्ट्रीट लाइट्स थीं जिन्हें ‘चिमनियाँ’ कहते थे.
मोहल्ले में मंदिर और गुरुद्वारा थे. मुसलमानों का एक-आध ही परिवार था. मोहल्ले से काफ़ी दूर एक मस्जिद थी जहां से वो इलाक़ा शुरू होता था जिसके निवासी मुख्यतः मुसलमान थे.
हमारे सम्बन्ध सबसे अच्छे थे.
मुझे याद है हमारे खेत में एक मुसलमान मुलाज़िम था जो खेत की देख-रेख करता था और खेती का काम करवाता था.
एक बार कुछ मुसलमान लड़कों की पतंग हमारे घर के पास उलझ गई, जो मेरे चाचा, गोवर्धन लाल, ने तोड़ ली.
वे लड़के हमारे घर अपनी पतंग मांगने आ गए; उनका कहना था कि मेरे चाचा ने उनकी पतंग तोड़ के ली है, जबकी मेरे चाचा का कहना था कि उसने पतंग लूटी है; इसलिए वापिस नहीं होगी.
मुझे याद है मैं बोल पड़ा, ‘चाचा क्यों झूठ बोल रहे हो. आपने पतंग तोड़ी है.’
फिर हमारे बड़ों ने बीच बचाव करके उन लड़कों को उनकी पतंग वापस करवा दी.
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हरिपुर एक छोटा शहर था जो NWFP (North-West Frontier Province या उत्तर-पश्चिम सीमान्त प्रांत) के हज़ारा क्षेत्र का हिस्सा था.
NWFP को अब ‘ख़ैबर पख़्तूनख़्वा’ कहते हैं और ये पाकिस्तान के मुख्य प्रान्तों में से एक है.
अगस्त 1947 में भारत के विभाजन के समय – जब मेरे पिता की आयु लगभग आठ वर्ष की थी – उनका परिवार लाखों अन्य परिवारों की तरह अपना घर-बार छोड़के उस ‘सीमा’ को लांघने पर मजबूर हुआ जो 1947 से पहले लोगों के ख्वाब-ओ-ख्याल में भी नहीं थी और जिसका औचित्य आज भी भारतीय उपमहाद्वीप के अधिकतर लोगों की समझ से बाहर ही मालूम पड़ता है.
मेरे पिता का परिवार विभाजन के समय हरिपुर हज़ारा से उजड़ने के बाद ‘सीमा’ के इस पार कई जगहों में रहने के बाद दिल्ली में बसा.
मेरे पिता ने 40 साल P.T./खेल के शिक्षक की नौकरी की और सन 2001 में सेवानिवृत हुए.
पेश है मेरे पिता की हरिपुर हज़ारा में बिताए बचपन की और विभाजन के हंगामे में अपने घर से उजड़ने की कुछ यादें उन्हीं की ज़बानी.
ये पोस्ट मेरे पिता के संस्मरण की पहली किस्त है.
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मेरी पैदाइश का दिन टेवे के मुताबिक़ 30 जुलाई 1939 है और जन्म-स्थान है हरिपुर हज़ारा जो एक पहाड़ी इलाक़ा था. यहाँ ‘चौकी मोहल्ले’ में हमारा घर था.
मैं अपने छः भाई-बहनों में दूसरे नंबर पर था, हालांकि मेरे माँ-बाप के चार और बच्चे नवजात गुज़र गए थे, जिनमें से दो 1947 तक चल बसे थे. हम छः भाई-बहनों में से पांच हरिपुर हज़ारा में ही पैदा हुए.
चौकी मोहल्ला पुलिस चौकी के पास था. शायद इसी लिए इसे ‘चौकी मोहल्ला’ कहते थे.
हमारा पक्का, तीन-मंज़िला मकान था जिसमें मेरे दादा, करमचंद बजाज (जिनकी मृत्यु मेरे जन्म से पहले हो चुकी थी), और ताऊ, नानकचंद बजाज, के परिवार रहते थे.
मेरे बाउजी (पिता), जगदीश राम बजाज, सात भाईओं और एक बहन में सबसे बड़े थे. उनकी बहन और तीन भाइयों की शादियाँ भी विभाजन होने तक हो चुकी थीं.
चौकी मोहल्ले से बाहर एक नहर बहती थी जिसे ‘कट्ठा’ कहते थे. गलिओं में पक्की नालियाँ होती थीं जिनमें साफ़ पानी बहता था जिसे लोग पीने और नहाने-धोने के लिए इस्तेमाल करते थे.
कुँए भी थे, पर हमारे मोहल्ले से ख़ासी दूरी पर.
नहर के किनारे किनारे चलो तो आगे बाज़ार आ जाता था. एक ही बड़ा बाज़ार था जो हरिपुर रेलवे स्टेशन तक जाता था.
इस बाज़ार में हमारी कपड़े की दुकान थी जो मेरे बाउजी (पिता) और उनके भाइयों की सांझी थी. दुकान का नाम था ‘लाला करमचंद एंड सन्ज़’.
नहर की सीध में ही बाज़ार पार ख़ालसा स्कूल था जहां मैं पढ़ता था. ये एक प्राइमरी स्कूल था यानि पांचवी जमात तक का.
मुझे इस स्कूल के बारे में इतना याद है कि वहां हमें उर्दू पढ़ाई जाती थी. मुझे सिवाए अपनी एक बुआ के लड़के के, जो मेरे साथ पढ़ता था, कोई सहपाठी याद नहीं है.
और एक मुसलमान ‘उस्ताद जी’ याद हैं जो हमें उर्दू पढ़ाते थे. वे दरम्याने क़द के, पतले, गोरे, दाढ़ी वाले आदमी थे. ख़ासे dedicated उस्ताद लगते थे; बच्चों से स्नेहपूर्वक व्यवहार करते थे, पर सख्ती भी करते थे और बच्चों को ‘मुर्गा बनने’ की सज़ा देते थे.
हम तख्ती पर क़लम-दवात से लिखते थे और नहर में अपनी तख्तियां धोते थे.
स्कूल 10 से तीन बजे तक होता था. हम आराम से खा पी कर स्कूल जाते थे.
मेरी उम्र के लड़के कमीज़ और कच्छा पहनते थे और इसी लिबास में स्कूल जाते थे. बड़े कमीज़ के साथ सलवार पहनते थे.
स्कूल खेलते कूदते जाते थे. आते जाते जी किया तो नहर में कूद कर डुबकियां लगाते थे.
पुलिस चौकी के सामने सड़क पार ‘सनातन धर्म स्कूल’ था जो दसवीं जमात तक था. खालसा स्कूल पास करने वाले बच्चों का दाख़िला सनातन धर्म स्कूल में होता था.
मुझे याद है मैं इस स्कूल में अपने एक चाचा, गोवर्धन लाल बजाज, के साथ RSS (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ) के एक समारोह में गया था, जिसमें RSS के एक बड़े नेता आए थे.
मेरे ये चाचा, जो मुझसे 8-9 साल बड़े थे, RSS से जुड़े हुए थे.
चौकी मोहल्ले से एक तरफ कुछ दूरी पर हमारे खेत थे जो हमारे परिवार के सांझे थे.
खेत के सामने हमारा बाग़ था जिसमें फलों के पेड़ थे. एक फल जो मुझे याद है उसे ‘लूचा’ कहते हैं; ये आलू बुख़ारे जैसा एक फल है. लुकाट और माल्टा भी उगता था.
मुझे याद है कि हमारे बाग़ के पास एक सूखी नहर थी जिसमें एक छोटा हवाई जहाज़ गिर गया था, जो शायद सिविलियन जहाज़ था. जब मैं ये घटना देखने वहां गया तो जहाज़ उठा कर ले जाया जा चुका था.
हमारे घर के पास एक खेल का मैदान था जिसे ‘खोला’ कहते थे जिसमें रामलीला भी खेली जाती थी और लोहड़ी भी जलाई जाती थी. एक गोरा सिख लड़का सीता का रोल अदा करता था.
कट्ठे (नहर) पर एक ज़नाना घाट था जहां औरतें भजन गाती थीं. एक पंजाबी भजन जो गाया जाता था उसकी पंक्ति थी: ‘हरिओम दी आवाज़ पई आवे श्याम तेरे मंदरां विचों.’
कट्ठे किनारे कुल्फ़ी बनाने वाले थे, जिनमें एक ‘अमर कुल्फ़ी वाला’ मुझे याद है. उसके सामने एक हलवाई की दुकान -- ‘मनोहर लाल गोवर्धन लाल हलवाई’ -- थी जिसके मालिक हमारे रिश्तेदार भी थे.
चौकी मोहल्ले में रहने वाले अन्य लोग जो मुझे याद हैं उनमें एक आनंद परिवार था और एक सूरी परिवार. ये दोनों परिवार विभाजन के बाद ग्वालियर आकर बस गए थे. ग्वालियर में मेरे कुछ चाचाओं के परिवार भी आकर बसे.
हमारे खेतों में गेहूं और मक्का उगता था.
हमारे मकान के भूतल में तीन गोदाम थे जिसमें हम अनाज रखते थे और दो अन्य कमरे थे; मेरे ताऊ के बेटे, जयचंद बजाज, का परिवार भूतल पर ही रहता था.
हमारा एक गोदाम बाज़ार में भी था.
मकान में दो तरफ से खुली एक बैठक थी जहां औरतें गर्मियों में ठंडक पाने के लिए बैठती थीं. मकान में बिजली भी थी; रेडियो और पंखे थे.
ऊपर जाने के लिए खुल्ली सीढ़ियां थीं.
पहले तल पर तीन कमरे और एक रसोई थी. दूसरे तल पर एक ही कमरा था.
मकान में शीशे का काफ़ी काम था और टाइलें भी लगी हुई थीं.
मोहल्ले में मिटटी के तेल से जलने वाली स्ट्रीट लाइट्स थीं जिन्हें ‘चिमनियाँ’ कहते थे.
मोहल्ले में मंदिर और गुरुद्वारा थे. मुसलमानों का एक-आध ही परिवार था. मोहल्ले से काफ़ी दूर एक मस्जिद थी जहां से वो इलाक़ा शुरू होता था जिसके निवासी मुख्यतः मुसलमान थे.
हमारे सम्बन्ध सबसे अच्छे थे.
मुझे याद है हमारे खेत में एक मुसलमान मुलाज़िम था जो खेत की देख-रेख करता था और खेती का काम करवाता था.
एक बार कुछ मुसलमान लड़कों की पतंग हमारे घर के पास उलझ गई, जो मेरे चाचा, गोवर्धन लाल, ने तोड़ ली.
वे लड़के हमारे घर अपनी पतंग मांगने आ गए; उनका कहना था कि मेरे चाचा ने उनकी पतंग तोड़ के ली है, जबकी मेरे चाचा का कहना था कि उसने पतंग लूटी है; इसलिए वापिस नहीं होगी.
मुझे याद है मैं बोल पड़ा, ‘चाचा क्यों झूठ बोल रहे हो. आपने पतंग तोड़ी है.’
फिर हमारे बड़ों ने बीच बचाव करके उन लड़कों को उनकी पतंग वापस करवा दी.
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