Lalita was a young college girl in Karachi (Sindh) when she was abducted at gunpoint by Salman and his Islamist friends, writes Dr. Shershah Syed in an Urdu piece published in HumSub online magazine on 13 April 2018.
She was then forced to ‘convert’ to Islam and ‘marry’ Salman while friendly Mullahs and their lawyers worked overtime to ward off the legal consequences of their crime and to try to ensure that the young woman is prevented from meeting her family ever again.
After her forced ‘marriage’, Lalita is made to give birth to a child even as the womenfolk of her captor’s household think of her as someone who had slyly ensnared their son and brother, writes Dr. Syed who is a well known obstetrician and gynaecologist of Pakistan.
He is the president of the Pakistan National Forum on Women’s Health (PNFWH) which is known for its work on women’s reproductive health and rights.
He has written 10 books, the latest being a collection of short stories.
Dr. Syed is based in Karachi in Sindh province which houses most of Pakistan’s ‘Hindus’ and also accounts for most of the cases of ‘forced conversions’ to Islam, especially of young women, including minors.
A Dawn report of Nov. 2016 cites a study (published in July 2015) that said, “At least 1,000 girls are forcibly converted to Islam in Pakistan every year.”
In Feb. 2018, The Express Tribune said: “Every year, hundreds of Hindu girls are forcibly converted to Islam after being kidnapped by unidentified persons usually with the connivance of the local police.”
Daily Times said in Sep. 2017: “Religious institutions are pivotal in promoting” Hindu girls’ “sham conversions to Islam”.
I have translated Lalita’s story from Urdu to Hindi in a way that most of the original wording has been retained.
Here is the story.
“शुक्र है हमारे खानदान की दोनों जवान लड़कियाँ - मेरी दोनों बहनें - अग़वा नहीं हुईं बल्कि गोली का निशाना बन कर मर गईं.”
She was then forced to ‘convert’ to Islam and ‘marry’ Salman while friendly Mullahs and their lawyers worked overtime to ward off the legal consequences of their crime and to try to ensure that the young woman is prevented from meeting her family ever again.
After her forced ‘marriage’, Lalita is made to give birth to a child even as the womenfolk of her captor’s household think of her as someone who had slyly ensnared their son and brother, writes Dr. Syed who is a well known obstetrician and gynaecologist of Pakistan.
He is the president of the Pakistan National Forum on Women’s Health (PNFWH) which is known for its work on women’s reproductive health and rights.
He has written 10 books, the latest being a collection of short stories.
Dr. Syed is based in Karachi in Sindh province which houses most of Pakistan’s ‘Hindus’ and also accounts for most of the cases of ‘forced conversions’ to Islam, especially of young women, including minors.
A Dawn report of Nov. 2016 cites a study (published in July 2015) that said, “At least 1,000 girls are forcibly converted to Islam in Pakistan every year.”
In Feb. 2018, The Express Tribune said: “Every year, hundreds of Hindu girls are forcibly converted to Islam after being kidnapped by unidentified persons usually with the connivance of the local police.”
Daily Times said in Sep. 2017: “Religious institutions are pivotal in promoting” Hindu girls’ “sham conversions to Islam”.
I have translated Lalita’s story from Urdu to Hindi in a way that most of the original wording has been retained.
Here is the story.
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http://www.humsub.com.pk/122461/shershah-syed/
आशिक़ नौजवान, हिन्दू लड़की, गुमराह मौलवी और मजबूर बाप
(डॉ. शेरशाह सय्यद, 13 अप्रैल 2018, ‘हमसब’ मैगज़ीन, पाकिस्तान)
“मुझे फांसी मिल जाती तो अच्छा था.” उसने बड़े दुःख से मेरी तरफ़ देखते हुए कहा था.
उसके लहजे में दर्द और उसकी आँखों में उदासी थी -- ऐसी कि जिसे देख कर देखने वाला भी उदास हो जाए.
वो अपने बाप के साथ आया था, जो मुझे सीधे-सादे से आदमी लगे -- दुबले पतले, सर पर जाली वाली सफ़ेद टोपी, तराशी हुई दाढ़ी, और आँखों पर क़ीमती फ़्रेम वाला ऐनक।
मुझे डॉक्टर हमीद ने फ़ोन करके उनके बारे में बताया था और कहा था कि वो उसे लेकर आएंगे।
हमीद का शुमार शहर के उन गिने-चुने डॉक्टरों में होता था जो न सिर्फ़ इलाज करते हैं बल्कि मरीज़ और मरीज़ के ख़ानदान के साथ क़रीब के ताल्लुक़ात भी रखते हैं।
पूरा ख़ानदान हमीद का मरीज़ था. खाते-पीते लोग थे; कराची की सब्ज़ी मंडी में आढ़ती का काम करते थे.
सलमान ने किसी हिन्दू लड़की का अपहरण किया था. उस से शादी की थी, जिस के बाद एक बच्ची भी पैदा हुई. वह हिन्दू लड़की एक दिन भाग गई थी.
मैंने क़िस्सा तो सुन लिया था लेकिन मेरा ख़याल था कि मैं मरीज़ और उसके ख़ानदान की ज़बान से ही सारी बातें दोबारा सुनूँ तो बेहतर होगा।
मुझे अंदाज़ा हो गया था कि पूरा ख़ानदान किस क़िस्म के ज़बरदस्त दबाव का शिकार होगा.
वे सब ही दबाव के शिकार थे. उन दोनों को बुलाने से पहले मैं उसके बाप को बुला कर उनकी बातें सुन चुका था. उन्होंने मुझे बताया कि वो कई दफ़ा ख़ुदकशी करने की कोशिश कर चुका है. अब उसे हर वक़्त किसी न किसी की निगरानी में रखना पड़ता है.
घर में भी उस पर नज़र रखनी पड़ती है कि कहीं वह बावर्ची-ख़ाने से छुरी निकाल कर अपने आप पर वार न कर डाले।
कमरों के दरवाज़ों की चिटखनियां निकाल दे गई हैं कि कहीं वो किसी कमरे में बंद होकर अपने आप को फांसी न लगा ले।
हर वक़्त उस के साथ एक मुलाज़िम रहता है.
इकलौता बेटा और उस का ये हश्र; किसी ने सोचा भी न था. माँ और बहनें हर वक़्त आँसू बहाती रहती हैं.
“न जाने किस की बद-दुआ या नज़र लगी है कि यह सब कुछ हो गया हमारे साथ.” उन्होंने बड़े दर्द भरे अलफ़ाज़ में पूरी कहानी सुनाई थी.
वे पूर्वी पाकिस्तान से लुटे-पुटे कराची आए थे. पूर्वी पाकिस्तान में अच्छा कारोबार था. बिहार से वे लोग पश्चिमी पाकिस्तान के बजाए ढाका चले आए थे. वहाँ ही उनके बाप ने मेहनत की और आहिस्ता आहिस्ता कारोबार जमाया था.
छोटी उम्र से वो अपने पिता के साथ उन का हाथ बटाने लगे थे. देखते ही देखते उन्होंने वो सब कुछ हासिल कर लिया था जिसकी हर आदमी कोशिश करता है.
"पूर्वी पाकिस्तान में सब कुछ मिला था हम लोगों को. बड़ी मेहनत की थी हमारे ख़ानदान ने. सुबह से शाम तक काम करते थे और अल्लाह ने उस का फल भी दिया। अच्छे पैसे कमाए। दोस्त, अज़ीज़, रिश्तेदार सब की मदद भी की. मकान भी बनाया। सोचा भी न था कि रुत ऐसे बदलेगी कि सब कुछ ख़त्म हो जाएगा।"
बांग्लादेश तो एक बड़ा देश बना मगर न जाने कितने छोटे छूटे 'देश'तबाह हो गए. बच्चे यतीम हो गए, बीवियाँ बेवा हो गईं, और अपने जवान बच्चों की मौत का मातम करते हुए माएँ अपना आपा खो बैठीं।
बहनें भाइयों को याद करती हैं और भाई अपनी बिछड़ी हुई बहनों के बारे में डरावने ख़्वाब देख देख कर न जाने कैसे ज़िंदगी गुज़ार रहे हैं.
“क्यों होता है ऐसा ? कुछ सालों के बाद वही कहानी दोहराई जाती है.” उन के लहजे में पीड़ा थी.
“शुक्र है हमारे खानदान की दोनों जवान लड़कियाँ - मेरी दोनों बहनें - अग़वा नहीं हुईं बल्कि गोली का निशाना बन कर मर गईं.”
“मैं, मेरी माँ और मेरे वालिद उनके लिए फातहा पढ़ लेते थे; उन्हें याद कर के रो लेते थे. अब मैं भी उन्हें याद करता हूँ तो यही सोचता हूँ कि वे कहीं जन्नत में सुकून से रह रही होंगी। मैं उनके बारे में सोच सोच कर परेशान नहीं होता हूँ.”
मुझे इस तरह की कहानियाँ सुनने का शौक़ था. मेरा विचार था कि मरीज़ों और मर्ज़ को समझने के लिए और उसके बाद इलाज करने के लिए ज़रूरी है कि ऐसे विवरण को इकट्ठा किया जाए; उस की छान-बीन की जाए तो बहुत सारी मनोग्रंथिओं को खोलने और समझने में मदद मिलती है.
मानसिक रोगियों का इलाज उन गुत्थियों को खोले बिना संभव नहीं है.
मेरा ध्यान अपनी ओर पाकर उन्होंने फिर कहना शुरू किया था कि जो कुछ भी हुआ दोनों तरफ़ से हुआ - क्या बिहारी, क्या बंगाली, क्या फ़ौजी, और क्या मुक्ति-बाहिनी। कोई भी इंसान नहीं रहा था.
"वहशत, दहशत, दरिंदगी और ज़ुल्म के दर्जे नहीं होते हैं, डॉक्टर साहब, जैसे चोरी और बेईमानी के दर्जे नहीं होते हैं. चोर को जानते-बूझते हुए चोर न समझना, बेईमान की बेईमानी की हिमायत करना, चोरी और बेईमानी से ज़्यादा बड़े जुर्म हैं.”
“जुर्म चाहे बड़ा हो या छोटा, जुर्म तो जुर्म ही होता है. इसी तरह से ज़ुल्मो सितम, वहशत, दहशत, दरिंदगी की हिमायत किसी भी वजह से की जाए वह भी वहशत, दहशत, दरिंदगी ही कहलाएगी।"
"न जाने क्या हो गया था लोगों को. पाकिस्तान को बचाने के लिए एक भी बंगाली का क़त्ल नहीं होना चाहिए था और बँगलादेश बनाने के लिए एक भी बिहारी को मारना नहीं चाहिए था."
"काश किसी लड़की की इज़्ज़त न लूटी जाती; काश किसी को भी क़त्ल नहीं किया जाता। क्या ज़रुरत थी इन सब चीज़ों की?"
उन की बात में वज़न तो बहुत था मगर हक़ीक़ी दुनिया में तो ऐसा नहीं होता है.
लोग वर्चस्व के लिए लड़ेंगे, क़ौमें एक दूसरे का गला काटेंगी, एक दूसरे की माँओं बहनों की इज़्ज़त लूटेंगी। कभी क़ौमियत के नाम पर, कभी मज़हब के नाम पर, कभी मुल्क बचाने के लिए, और कभी अपने अहं की संतुष्टि के लिए.
इंसान तो यही करते रहे हैं. इतिहास तो यही बताता है. मेरे मन में भी इस क़िस्म के विचार आते रहते थे.
“दो बहनों का दुःख ले कर और सब कुछ ढाका में छोड़ कर मैं अपने परिवार के साथ नेपाल के रास्ते कराची पहुँच गया था और कराची के औरंगी टाउन में ज़िंदगी वैसे ही शुरू कर दी थी जैसे मेरे बाप ने ढाका में शुरू की थी. वहाँ मैं उन का हाथ बटाता था; यहाँ उन्होंने मेरा हाथ बटाया। यहाँ बहुत जल्द अल्लाह की महरबानी से हम लोगों को सब कुछ मिल गया.”
“मैंने वही काम यहाँ की सब्ज़ी मंडी में शुरू कर दिया. यही एक काम मुझे आता था जो मैं अच्छे तरीक़े से कर सकता था. फिर औरंगी टाउन छोड़ कर गुलशन इक़बाल जा बसने में बहुत देर नहीं लगी हमें.”
“मैंने अपनी बेटियों और बेटे को पढ़ने में लगा दिया था. बहुत मेहनत की थी उनकी माँ ने उनके पीछे.”
“बांग्लादेश में सब कुछ उलट गया था हमारा और हमारे जैसे लोगों का. मैं शायद क़िस्मत का धनी था. शायद मेरी क़त्ल होने वाली बहनों की दुआएं थीं मेरे साथ कि मेहनत करने का मौक़ा मिल गया और मेहनत से खोई दौलत भी वापिस आ गई.”
“मगर कई ख़ानदान तो ऐसे तबाह हुए कि आज तक उस तबाही से बाहर नहीं निकल सके हैं.”
“मैने सोचा था कि मैं अपने बच्चों को पढ़ाऊँगा - इतना पढ़ाऊँगा कि कल अगर दोबारा वही सब कुछ पाकिस्तान में हुआ जो बांग्लादेश में हुआ था तो उन्हें संभलने के लिए वह सब कुछ नहीं करना पड़े जो मुझे करना पड़ा है.”
“सेठ तो कंगाल हो सकता है, मगर पढ़ा लिखा आदमी कंगाल नहीं होता है.”
ये कह कर वो ख़ामोश हो गए, जैसे कुछ कहने के लिए सही अल्फ़ाज़ का चुनाव करना चाह रहे हैं.
फिर मेरे कुछ कहने से पहले ही उन्होंने दोबारा कहना शुरू किया.
"शायद मुझ से ग़लती हो गई. तालीम के बावजूद जो कुछ हुआ वो मैंने सोचा भी नहीं था. ये मेरा बेटा बिलकुल ठीक-ठाक था. इसे मैंने कारोबार भी सिखाया और तालीम भी दिलाई। ये काम भी सही करता था, मगर न जाने क्यों और कैसे ये सब कुछ हो गया हमारे साथ."
उन की आँखें झिलमिला गईं और आवाज़ भर्रा गई.
“मेरा बेटा एक शरीफ़ आदमी था. मेरी आँखों के सामने बड़ा हुआ था. ज़ाहिर में कोई ख़राबी नहीं थी उसमें। मेहनती था, काम करता था. स्कूल, कॉलेज, यूनिवर्सिटी में पढ़ा था।“
“इलाक़े के मस्जिद में नमाज़ पढ़ता था, रोज़े रखता था. सारे दोस्त उसके मज़हबी थे.”
“मैं आज तक नहीं समझ सका कि उसे ऐसा करने की क्या ज़रुरत थी. कोई ज़रुरत नहीं थी. ख़ानदान में, ख़ानदान के बाहर, दोस्तों में, रिश्तेदारों में, ख़ुद हमारे मोहल्ले में बहुत सारी ख़ूबसूरत लड़कियां थीं.”
“हम लोग खाते पीते लोग थे; कुछ कमी नहीं थी. जिससे चाहता उससे शादी हो जाती उसकी, मगर वो एक हिन्दू लड़की पर आशिक़ हो गया.”
“मैंने, उसकी माँ ने, उसकी बहनों ने, किसी ने भी नहीं सोचा था कि ऐसा हो जाएगा और इस तरह से हो जाएगा।"
“शुरू में तो मैंने कोई ख़ास ध्यान नहीं दिया। ऐसा हो जाता है; आप किसी को पसंद कर लेते हैं. चाहते हैं कि उससे आपकी शादी हो जाए, वो आपको मिल जाए. मगर ज़िंदगी में वो सब कुछ तो नहीं होता है जो आप चाहते हैं."
फिर आप सब्र कर लेते हैं. भूल जाते हैं. ख़ास तौर पर ऐसे हालात में जब सारी मुहब्बत एकतरफ़ा हो, जब मज़हब, ज़ात, फ़िरक़े का फ़र्क़ हो.”
"एक दिन मैंने उसे समझाया था कि हम लोग मुसलमान हैं और वो एक शरीफ़ हिन्दू घराने की शरीफ़ सी हिन्दू लड़की है जो तुम से शादी करना भी चाहे तो नहीं कर सकती है क्योंकि उसके माँ-बाप कभी भी राज़ी नहीं होंगे।"
“फिर सबसे बड़ी बात ये थी कि ललिता ने तुमसे साफ़ साफ़ कह दिया है कि उसे तुममें कोई दिलचस्पी नहीं है. फिर तुम ऐसी ज़िद क्यों कर रहे हो जिसका कोई फ़ायदा नहीं है. मैंने और इसकी माँ ने बहुत समझाया था इसे. इसकी माँ तो रो दी थी इस के सामने।“
"'मैं उसे मुसलमान बनाऊँगा। वो मेरी बीवी बनेगी। मैं उसके बिना नहीं रह सकता हूँ.' - इसने बार-बार अपनी माँ से यही कहा था. ये समझना ही नहीं चाह रहा था कि ललिता और ललिता के ख़ानदान को इसमें कोई दिलचस्पी नहीं थी.
"वे हिन्दू लोग थे और हिन्दू रह कर अपने ही तरीक़े से ज़िंदगी गुज़ारना चाहते थे. वे लोग कराची के पुराने सिंधी थे. खाते पीते, ख़ुशहाल व्यापारी, और अपने काम से काम रखने वाले लोग."
“बेशक वो एक ख़ूबसूरत लड़की थी. मेरे बेटे को अच्छी लगी होगी। लेकिन इसका मतलब ये तो नहीं था कि ये उसका अपहरण कर लेता। हाँ डाक्टर साहब, इसने उसे अग़वा कर लिया अपने दोस्तों की मदद से. इसने उसे कॉलेज से घर आते हुए ज़बरदस्ती रास्ते में पकड़ कर अपनी गाड़ी में डाल कर अग़वा कर लिया था.”
"मुझे बाद में पता चला कि इसने पैसे ख़र्च किए थे उसके अपहरण पर. वो चीख़ी, चिल्लाई थी, मगर हथियारों के ज़ोर पर वो सब कुछ हो गया जो कराची में होता रहता है, जो सिंध के छोटे बड़े शहरों, क़स्बों में हो रहा है."
"हर कोई देख रहा है, समझ रहा है; फिर भी हम सब देखते रहते हैं, कुछ नहीं कहते। क्योंकि हममें न तो नैतिक साहस है, न जुरअत है, और शायद इसे बुरा भी नहीं समझते हैं - उस वक़्त तक जब तक ये हमारे अपने साथ नहीं हो जाता."
“कुछ न कहना, कुछ नहीं करना, एक तरह से हिमायत ही तो है इस अत्याचार की.”
मैंने नहीं सोचा था कि कहानी इतनी पेचीदा होगी और मौलवी टाइप का ये आदमी इस तरह की बात करेगा।
कोई भी अपने बेटे को बुरा नहीं कहता है, बुरा नहीं समझता है, ख़ास तौर पर ऐसे मामले में जब मज़हब का नाम लिया जाता है, जब मामला हिन्दू मुसलमान के दरम्यान का है. मुसलमान कैसे ग़लत हो सकता है? ये तो मुमकिन ही नहीं था.
"मुझे तो बहुत बाद में पता चला जब ललिता के बाप की तस्वीर अख़बार में छपी थी. उस का ब्यान था कि उसकी बेटी को अग़वा कर लिया गया है. मेरे बेटे का नाम था कि इसने अग़वा किया है और उसे मुसलमान बनाकर उससे शादी कर ली है."
"ये सब कुछ एक आलिम (इस्लाम पढ़ा हुआ व्यक्ति) के हाथों हुआ था बड़े सुनियोजित तरीक़े से. एक बड़े से मदरसे में ये जिहाद किया गया था एक निहत्थी, मासूम, छोटी उम्र की हिन्दू लड़की के ख़िलाफ़।"
“मेरा बेटा इतना घटिया हो जाएगा, ये मेरी कल्पना में भी नहीं था.”
छः महीने तक कुछ भी नहीं हुआ - ललिता का बाप पुलिस स्टेशन और बड़े अफ़सरों के दफ़्तरों के चक्कर काटता रहा.
"प्रेस क्लब में 'हिन्दू पंचायत'वाले प्रेस कांफ्रेंस करते रहे. कुछ भी नहीं हुआ. मेरे बेटे और उस मौलवी का वकील बहुत बड़ा वकील था. इसकी गिरफ़्तारी से पहले ज़मानत पर ज़मानत होती रही."
"वकील ने कुछ ऐसा चक्कर डाल दिया था कि पुलिस वाले जानते बूझते हुए भी ललिता को वापिस नहीं ला सकते थे."
"ये दोनों एक 'सुरक्षित'जगह पर रह रहे थे. ये कैसा सिस्टम है जिस में मज़हबी बुनियाद पर बेबस लड़की अग़वा हो जाती है, रुपयों से ख़रीदा हुआ वकील क़ानून से खेलता है, और जज इंसाफ़ मुहय्या करने में बेबस है."
"मैंने इसे समझाने की कोशिश की थी, मगर ये नहीं समझा। मैं तो एक बाप हूँ; मेरी बेटियाँ भी हैं. मुझे अंदाज़ा था कि ललिता के बाप पर क्या गुज़र रही होगी। उस की माँ कैसे सोती होगी, कैसे खाती होगी, कैसे रोती होगी।
मैं सोचता था और मुझे भी नींद नहीं आती थी; ज़िन्दगी का मज़ा ख़त्म हो गया था."
"साल नहीं गुज़रा था कि एक दिन ये ललिता को लेकर घर आ गया; इसके साथ पुलिस थी, मौलवी टाइप गार्ड थे. कुछ मौलवी थे. ये सब अदालत से आए थे. ललिता ने जज के सामने इक़रार किया था कि वो मुसलमान हो गई है; वो अपने शौहर के साथ अपनी मर्ज़ी से अदालत आई है, और अपने माँ-बाप के पास वापिस नहीं जाना चाहती है."
"मौलवियों ने फ़तवा दिया था कि ललिता - जिस का नाम 'फ़ातमा'रखा गया - अब अपने काफ़िर माँ-बाप से नहीं मिल सकती है क्योंकि वे उसके लिए 'ना-महरम'हैं." ('ना-महरम': जिससे, इस्लामी क़ानून के अनुसार, नज़दीकियां निषिद्ध हैं और पर्दा करना उचित है.)
"मैंने उसे बख़ुशी क़ुबूल कर लिया था. वो छः महीने की गर्भवती थी; वो मेरे बेटे के बच्चे की माँ बनने जा रही थी. मेरी बीवी और मेरी बेटियों ने भी उसे क़ुबूल कर लिया था, गो कि दिल से वे यही समझती थीं की ललिता ने सलमान को फंसाया है और उसे पागल कर दिया है."
"मैं बिल्कुल भी ऐसा नहीं समझता था. मेरा दिल कहता था कि उसके साथ मेरे बेटे और उस के दोस्तों ने ज़्यादती की है. मैं उसकी मदद करना चाहता था.”
"मैंने उसकी आँखों में ख़ौफ़ के साये देखे थे. वो नाज़ुक और बहुत ख़ूबसूरत लड़की थी. बहुत कम वक़्त में उसके साथ बहुत कुछ हो गया था."
"मेरे बेटे ने न जाने कैसे बहुत बड़ा जुर्म और ज़ुल्म किया था. उसे अग़वा किया था, ज़बरदस्ती उसे अपने माँ-बाप से जुदा कर दिया था, उसे मजबूर करके उसका मज़हब तब्दील कराया था, उससे ज़बरदस्ती शादी करली थी."
"ये बातें समझने के लिए बहुत तालीम और समझ की ज़रुरत नहीं है. उसकी बड़ी, स्याह आँखों में ख़ौफ़ की कैफ़ियत सब कुछ बता रही थी."
"मुझे अंदाज़ा हो गया कि उसने डरावे में अदालत में बयान दिया था ताकि वो उस पनाह-गाह से निकल सके. वो गर्भ से ज़रूर थी मगर मुझे पता था कि उसका बलात्कार हुआ है. न वो मुसलमान हुई है, न उसे मेरे बेटे से मुहब्बत है, और न ही वो माँ बनना चाहती है."
"वो हैरान-परेशान थी; डरी हुई थी; उसके साथ जो कुछ भी हुआ था वो माफ़ी के भी क़ाबिल नहीं था."
"मैं सोच भी नहीं सकता था कि मेरा बेटा, मेरा ख़ून, ये सब कुछ करेगा, डॉक्टर साहब।"
मैंने बहुत कम ऐसे बाप देखें हैं जो अपनी औलाद के जुर्म का बोझ उठाते हैं. मैं ध्यान से उनकी बात सुन रहा था और सलमान की फ़ाइल पर लिखता भी जा रहा था.
"वो बड़ी भोली सी लड़की थी - सलमान से ख़ौफ़ज़दा। उसे देखते ही मेरी आँखों में आँसू झलक आते थे. मैं अपनी उन दो बहनों के बारे में सोचता था जो बांग्लादेश में क़त्ल हो गई थीं. उन बेटियों के बारे में सोचता जो कॉलेज में पढ़ रही थीं कि अगर उनके साथ यही सब कुछ हो जो ललिता के साथ हुआ है तो क्या होगा।"
"मेरी बेचैनी का अंदाज़ा सलमान नहीं कर सकता था. वो खुश था कि ललिता उसके क़ब्ज़े में थी. उसे अपने मज़हबी दोस्तों की हिमायत हासिल थी. उसका ख़याल था कि उसने ललिता को मुसलमान करके जन्नत कमा ली है. उसके मौलवी रहनुमा और दोस्तों का यही ख़याल था."
"जल्द ही मैं दादा बन गया. नन्ही सी बच्ची - जिसे उसने कोमल का नाम दिया था - को देख कर झूम उठता. उसे चूम कर मुझे उसके नाना का ख़याल आता और फिर मेरा दिल भर आता."
"डाक्टर साहब, आप अंदाज़ा नहीं कर सकते कि मेरे दिल पर क्या गुज़री थी. मैं कुछ नहीं कर सकता था सिवाए दुआओं के. उस दिन अशा की नमाज़ पर मैंने दुआ की थी कि मेरे बेटे को हिदायत मिले। वो ये सब कुछ न करे जो वो कर रहा था."
"(पर) मैं कुछ भी नहीं कर सका। न उसे बदल सका, न उसके दोस्तों को बदल सका."
"एक दिन मेरे दफ़्तर ललिता के वालिद आ गए. बिमल कुमार नाम था उनका. पचास से ज़्यादा उम्र नहीं होगी उनकी, मगर वक़्त ने बूढ़ा कर दिया था उन्हें। उन्हें नहीं पता था कि ललिता माँ बन गई है. वो तो सिर्फ़ ये कहने आया था कि वो जो हुआ उसे नहीं बदल सकता, मगर वो चाहता है कि वो और उस की बीवी ललिता से मिल सकें।"
"मैंने कमरे का दरवाज़ा बंद कर के अपना दिल उसके सामने खोल कर रख दिया। मैंने उसे कहा कि मैं सलमान का बाप ज़रूर हूँ, मगर उसका तरफ़दार नहीं हूँ. मैंने उससे माफ़ी मांगी कि मैं कुछ कर नहीं सका. सलमान ने जो भी कुछ किया वो ग़लत था और अब जो भी कुछ हो रहा है सही नहीं है. मुझे अपनी मजबूरी पर रोना आया था."
"उसने मेरे हाथ थाम कर कहा कि वो समझ सकता है कि मेरा कोई दोष नहीं है. 'बस आप उसे ये कह दें कि हम उसे भूले नहीं हैं. उसकी माँ, उसकी बहन, उसका भाई, उसकी नानी, उसकी दादी, सब उसके लिए रोते हैं. रोते रहेंगे। वो जहां भी है हमारी बेटी है, हमारी बेटी ही रहेगी'।"
"मैं ललिता को बताना चाहता था कि उसका बाप मुझसे मिला है. मैं मौक़े की तलाश में था कि कब मुझे फ़ुर्सत और ऐसा वक़्त मिल जाएगा कि मैं उससे अकेले में बात कर सकूं।"
"सलमान की कड़ी नज़र थी उसकी तरफ़ और मुझे कई बार संदिग्ध लोग मकान के आस-पास नज़र आते थे. ज़बरदस्ती मुसलमान बनाने वालों ने हमारे मकान पर नज़र रखी हुई थी. मैं चाहते हुए भी उसकी मदद नहीं कर पा रहा था."
"मैं दिल से चाहता था कि वो वापिस अपने माँ-बाप के पास चली जाए. दीन, ऐतक़ाद और मज़हब में ज़बरदस्ती नहीं होती। अग़वा करके शादी करना किसी भी मज़हब में जायज़ नहीं हो सकता।"
"मुझे अफ़सोस इस बात का भी है कि इसकी माँ भी इसकी हामी हो गई थी. ममता अपनी जगह पर सही है, लेकिन मेरी समझ में नहीं आता था कि ये कैसी ममता है जो अपने बेटे के लिए हर बात जायज़ समझती है."
"मैं सोचता हूँ, डाक्टर साहब, कि हम लोगों में कोई बहुत बड़ी बुनियादी ख़राबी है. पहले तो वो इस बात के ही ख़िलाफ़ थी कि सलमान किसी हिन्दू लड़की से शादी करे. और अब वो न सिर्फ़ उस अपहरण को भी जायज़ समझती थी बल्कि इस मामले पर बात करने को भी तैयार नहीं थी."
"मैं ये अच्छी तरह से समझ रहा था ललिता न मुसलमान हुई है और न ही सलमान को अपना शौहर समझती है. वो एक मुसलमान, एक बीवी की ऐक्टिंग कर रही थी. उसने अपने ख़ानदान को बचाने के लिए अपने आप को क़ुर्बान कर दिया था. मैं उसकी डरी हुई आँखों में पढ़ रहा था कि वो सिर्फ़ मौक़े के इंतिज़ार में है."
"मैं उसकी मदद करना चाहता था क्योंकि उसकी ज़िंदगी और उसकी बहाली में ही हम सब की बहाली थी. मुझे पता था कि सलमान भी ये समझता है कि ललिता को हासिल करके भी वो उसे हासिल नहीं कर सका है."
"यही वजह थी कि उसका रवैया आक्रामक हो गया था. वो अपने तंग-नज़र मज़हबी दोस्तों और रहनुमाओं के साथ रह कर बदल गया था. अपने आप को ही सही समझता और अपने अहं की संतुष्टि के लिए कुछ भी कर गुज़रता। इससे बड़ी और ख़राब बीमारी कोई नहीं है."
"न जाने क्यों उस रात कैसे मेरी आँख खुल गई थी. मैं अपने कमरे से उठकर फ्रिज से पानी लेने के लिए जा रहा था कि मैंने ललिता को देखा। वो बच्ची को हाथों में संभाले खुले हुए दरवाज़े से बाहर निकल रही थी."
"पता नहीं क्यों मैं समझ गया था कि वो घर छोड़ कर जाने की कोशिश कर रही है. मैं दबे पाँव उसके पीछे गया. मैंने पहली और आख़िरी दफ़ा उसे गले लगाया, अपनी पोती को शायद आख़िरी दफ़ा चूमा इस उम्मीद के साथ कि वो जहां रहे ख़ुश रहे।"
"ललिता ने भी मेरे हाथों को ज़ोर से पकड़ा। उसकी आँखों में आँसू थे. मुझे नहीं पता है कि मेरे घर के गेट से बाहर वो रिक्शा कैसे और कब से खड़ा था. वो तेज़ी से बच्ची को लेकर रिक्शे में बैठ गई."
"मैं गेट को बंद किए बिना ख़ामोशी से अपने कमरे में आकर लेट गया और दुआ करता रहा था कि ललिता निकल जाए; कोई उसे रोके नहीं।"
"सुबह हुई तो घर में वही कुछ हुआ जिस की उम्मीद थी - शोर शराबा, ग़ुस्सा, और बहुत से मौलवियों की आमद. मुझे लगा कि अब एक बार फिर से क़ानूनी और मज़हबी जंग शुरू हो जाएगी।"
"मगर कुछ नहीं हुआ, सिवाए इसके कि उसी दिन ललिता के बाप के घर पर पुलिस का छापा पड़ा जिसमें कुछ भी बरामद नहीं हुआ. ललिता वहाँ नहीं थी."
"दस दिन के बाद ललिता के बाप ने थाने से अपनी शिकायत वापस ले ली और अदालतों से अपना मुक़द्दमा ख़त्म करने की दरख़्वास्त दे दी. मुझे इत्मिनान सा हो गया था कि ललिता महफ़ूज़ है."
"एक दिन ये बहुत ग़ुस्से में मेरे ऑफ़िस आ गया. इसके साथ दो और नौजवान थे. इनका बात करने का ढंग बता रहा था कि ये सब एक ही सोच रखते हैं जिसके मुताबिक़ एक हिन्दू लड़की को मुसलमान बना लेना एक मुबारक काम है."
"'हम उसे वापस ले कर आएंगे। समझा क्या है उन हिन्दुओं ने! हम मुसलमान हैं,'वग़ैरह वग़ैरह। ये सब कुछ बड़े ज़ोर ज़ोर से कहा था उन लोगों ने."
"मैंने उन्हें समझाने की कोशिश की: 'वो अपनी मर्ज़ी से तुम्हें छोड़ कर गई है. वो तुम्हें अपना शौहर नहीं समझती। इस वक़्त न जाने कहाँ होगी। शायद भारत चली गई हो. जो हो गया, सही या ग़लत, उसका इलाज मुमकिन नहीं है. अब आगे बढ़ने का वक़्त है'."
"मगर ये बात उनकी समझ में नहीं आई थी. मेरा दिल जैसे बैठ गया. ये कौन लोग थे?"
"मैं मज़हबी आदमी हूँ, अल्लाह पर यक़ीन रखता हूँ, मुसलमान हूँ. मैं तो सोच भी नहीं सकता कि मैं किसी से ज़बरदस्ती करूँ और ज़बरदस्ती भी ऐसी..... मुझे पहली बार अपने बेटे को देख कर घिन आई."
"वे लोग मुझ से बेकार की बहस कर के चले गए. उसी शाम को एक आदमी बिमल कुमार का एक ख़त मेरे बेटे के नाम दे कर गया. लिफ़ाफ़ा बंद था. मैंने उसे खोलना मुनासिब नहीं समझा। घर आकर इसे अपने कमरे में बुला कर लिफ़ाफ़ा दे दिया।"
"इस ने ख़त खोला, खोल कर पढ़ा, दोबारा पढ़ा, और ज़ोर ज़ोर से रोने लगा. ख़त उसके हाथ में था."
"मैंने कुछ नहीं कहा. दिल तो मेरा चाहा कि उसे तसल्ली दूँ, मगर न जाने क्यों मैं ऐसा कर नहीं सका. शायद मेरे अंदर इसके ख़िलाफ़ ग़ुस्सा था. फिर भी मैंने उसका हाथ पकड़ लिया था."
"आहिस्ता आहिस्ता इसकी हिचकियाँ रुक गई थीं और ये ख़ामोशी से दीवार को तक रहा था. मैंने इसके चेहरे पर नज़र डाली तो इसने बिमल कुमार का ख़त मुझे थमा दिया।"
"बेटे हमेशा ख़ुश रहो. तुम्हें मैं बताना चाहता हूँ कि ललिता हिन्दोस्तान चली गई है, जहाँ उसकी मासी ने उसका रिश्ता भी तय कर दिया है. अब वो कभी भी अपने पुरखों के देस सिंध-पाकिस्तान नहीं आएगी। उसके होने वाले शौहर और उनके परिवार ने उसे बच्ची समेत क़ुबूल कर लिया है. मैं प्रार्थना करता हूँ, तुम भी दुआ करो, कि वो हमेशा ख़ुश रहे. मैं चाहता हूँ कि तुम भी ख़ुश रहो."
"मुझे और मेरे ख़ानदान को तुमसे बड़ी शिकायत है. मेरी बीवी न जाने तुम्हारे बारे में क्या क्या कहती रहती है और न जाने कौन कौन सी बद-दुआएँ देती रहती है. मैं सिर्फ़ दुआ करता हूँ कि वक़्त के साथ उसके ज़ख़्म भर जाएँ और वो भी सब कुछ भूल जाए. मेरे घर वाले कहते हैं कि तुमने माफ़ न करने वाला जुर्म किया है; तुमने हमारे ख़ानदान का सुख चैन छीन लिया; तुमने मेरी मासूम बच्ची के साथ जो कुछ किया है माफ़ कर देने के क़ाबिल नहीं है. मैं पिछले कई महीनों से इसी बारे में सोचता रहा हूँ, रातों को जागता रहा हूँ, लेकिन मैंने अपनी बीवी बच्चों को कह दिया है कि मैंने तुम्हें माफ़ कर दिया है."
"मेरे ख़याल में माफ़ करना तो वही होता है जब नाक़ाबिले माफ़ी को भी माफ़ कर दिया जाए."
-बिमल राय
"ख़त मेरे हाथों में कपकपाने लगा. मेरे दिमाग़ के बहुत अंदर किसी जगह पर जैसे अलफ़ाज़ थर्रा रहे थे. 'नाक़ाबिले माफ़ी को भी माफ़ कर दिया जाए.'"
इस ख़त के बाद से, डॉक्टर साहब, ये कहता है कि इसे मर जाना चाहिए, कि इसे फाँसी दी जाए -- फाँसी।"
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1. http://www.humsub.com.pk/122461/shershah-syed/
2. https://en.wikipedia.org/wiki/Shershah_Syed
3. http://pnfwh.org.pk/about-us/
4. https://www.dawn.com/news/1298369
5. https://tribune.com.pk/story/1632537/6-more-and-more-muslims/
6. https://dailytimes.com.pk/116289/forced-conversions-of-pakistani-hindu-girls/
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